"संसद में शर्मनाक तमाशा"
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लोकपाल बिल एक बार फिर राज्यसभा में लटकने के लिए कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी दोषी !
दक्षिण एशियाई देशों में भ्रष्टाचार अब खबर नहीं रही। लोग इसके साथ जीने लगे हैं। फिर भी, ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार को लेकर उनके मन में गुस्सा नहीं है, लेकिन जब वे इस भ्रष्टाचार के साथ बड़े-बड़े नेताओं का जुड़ाव देखते हैं तो उन्हें लगने लगता है कि संभवत: इसे दूर करने का कोई रास्ता नहीं है। भारत में भ्रष्टाचार को लेकर उत्तेजना है, क्योंकि भ्रष्टाचार का एक के बाद दूसरा मामला उजागर हो रहा है। ऐसे में पिछले सप्ताह जब बहुचर्चित लोकपाल विधेयक एक बार फिर टल गया तो काफी निराशा हुई। पिछले 42 सालों से इस विधेयक का यही हश्र होता आ रहा है। सभी सरकारें, जिनमें अधिकांश कांग्रेस की सरकार हैं, किसी न किसी बहाने इस जुगत में लगी रही हैं कि यह विधेयक पारित न हो सके। यहां तक कि जब विधेयक लोकसभा में पारित हो गया और संसद की स्थायी समिति में इस पर विचार भी हो गया तब भी पिछले दिसंबर में सरकार राज्यसभा में इसकी अनदेखी कर गई। उसने बहाना बनाया कि चूंकि कार्यवाही चलते मध्यरात्रि हो चुकी है इसलिए सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया जाता है। इस तरह इस बार भी वही नाटक हुआ। बस पटकथा में कुछ और अंश जोड़ दिए गए। पिछले दिनों लोकपाल विधेयक मंजूरी के लिए फिर राज्यसभा में पेश किया गया। विधेयक में पहले प्रावधान था कि राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति केंद्र सरकार करेगी। राज्य सरकारों ने इसका विरोध किया था। राज्य सरकारों का कहना था कि अपने शासनाधिकार वाले क्षेत्रों के भ्रष्टाचार को वे खुद देखेंगे। राज्यों के विरोध के कारण किरकिरी हुई। इसके कारण इस प्रावधान को हटाकर इस बार नए स्वरूप में विधेयक पेश किया गया था। हालांकि पेंच वाले दो अन्य प्रावधान बने रहे। इनमें पहला प्रावधान सीबीआइ का नियंत्रण केंद्र के अधीन रहने और दूसरा लोकपाल के चयन के लिए चयन समिति बनाने का था। फिलहाल इस समिति में सरकारी प्रतिनिधि बहुमत में हैं। कांग्रेस जब देश से बार-बार वादा कर रही थी कि इस बार के संसद सत्र में वह एक सशक्त लोकपाल विधेयक को पारित करा लेगी तो उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस कोई मान्य समाधान तलाश लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मंगलवार को सत्रावसान हो गया। लोकपाल के घिनौने नाटक का पहला दृश्य मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ओर से पेश किया गया। सपा के एक सदस्य ने विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद की प्रवर समिति में भेजने का सुझाव दिया। यह चौंकाने वाली घटना थी। ऐसा लगता है यह प्रस्ताव कांग्रेस के इशारे पर रखा गया, जो नहीं चाहती कि विधेयक पारित हो, लेकिन ऊपर से दिखाना चाहती है कि वह विधेयक के पक्ष में है। कांग्रेस दिखावे के तौर पर ऐसा करने को मजबूर है, क्योंकि लोकपाल सरकार के लिए अग्निपरीक्षा बन चुका है। जनता इसी के आधार पर राय बनाने के मूड में है कि सरकार भ्रष्टाचार पर रोक लगाना चाहती है या नहीं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सदन में मौजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से सीधा सवाल किया कि सरकार विधेयक को पारित कराना चाहती है या नहीं? मनमोहन सिंह शांत बैठे रहे। सरकार ने जब खुद प्रवर समिति के गठन का प्रस्ताव पेश किया तो सारा रहस्य खुल गया और यहां से साजिश भरे नाटक का दूसरा दृश्य शुरू हुआ। सरकार का प्रस्ताव जब वोट के लिए रखा गया तो इसके विरोध में कोई नहीं आया। अरुण जेटली उस वक्त तक सरकार का घोर विरोध कर रहे थे, लेकिन जब प्रवर समिति बनाने का प्रस्ताव सरकार की ओर से रखा गया तो वह भी सरकार के साथ हो गए। मुलायम सिंह यादव द्वारा कांग्रेस को बचाने की बात मैं समझ सकता हूं, क्योंकि उनके खिलाफ सीबीआइ में कई मामले पड़े हुए हैं, लेकिन चौंकाने वाली बात भाजपा का उलट रवैया था। भाजपा ने कांग्रेस सरकार द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव का विरोध क्यों नहीं किया, यह बात मेरी समझ से परे है। मैंने किसी मुख्य विपक्षी पार्टी को करोड़ों लोगों के सामने इस तरह यू टर्न लेते कभी नहीं देखा था। ये करोड़ों लोग लोकपाल का भविष्य जानने के लिए टेलीविजन सेटों पर आंखें टिकाए हुए थे। एक सफाई पेश की गई कि जिस वक्त प्रस्ताव पर मतदान होना था उस वक्त पर्याप्त संख्या में भाजपा सदस्य सदन में उपस्थित नहीं थे, लेकिन सवाल यह नहीं था कि भाजपा प्रस्ताव को पारित होने से रोक पाती है या नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण बात यह थी कि लोकपाल विधेयक के समर्थन को लेकर भाजपा पूरे तौर पर ईमानदार है या नहीं? परीक्षा की घड़ी आई तो भाजपा गुफा में घुस गई। अब इसका कोई मतलब नहीं रहा कि उसने कब और कहां कितना हल्ला मचाया? हकीकत में भाजपा पूरे तरह बेपर्दा हो गई है। अब फैसला जनता को करना है। वाम दलों को छोड़कर बाकी दल लोकपाल नहीं चाहते। उन्हें इस बात का डर है कि लोकपाल होने पर उनके नेताओं की करतूतें बेपर्दा होंगी या फिर उन्हें सजा मिलेगी? मुझे लगता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन सरकार के दिए भरोसे को लेकर स्थगित नहीं होना चाहिए था। उस वक्त तो सरकार ने हजारे को सदन की इस भावना से अवगत कराया था कि पूरा सदन मजबूत लोकपाल के समर्थन में है। कोई संदेह नहीं कि घोषणा के अनुसार अगर आंदोलन फिर 25 जुलाई से शुरू होता है तो वह जोर पकड़ेगा। हजारे की मुख्य ताकत जनअसंतोष है और वह जन असंतोष खत्म नहीं हुआ है। चिंता बस इस बात को लेकर है कि हजारे के इर्द-गिर्द बहुत सारे अवांछित तत्व जमा हो गए है और इनके कारण फिर से ईमानदार, पंथनिरपेक्ष मोर्चा खड़ा करना कठिन होगा। इस बार काले धन पर सरकार का श्वेत-पत्र मददगार साबित हो सकता है। इसमें विदेशों में जमा काले धन के बारे में कोई अनुमान नहीं दिया गया है। फिर भी सरकार ने इस काले धन को प्राप्त करने के लिए एक बार करों में छूट देने की घोषणा की है। इस तरह की कोशिश पहले भी की गई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला था। रियल इस्टेट और शेयर बाजार काले धन के सबसे बड़े श्चोत हैं। कई राज्यों में तो मंत्री ही खुद इनसे जुड़े हुए हैं। राजनीतिक कारणों से सरकार इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, जबकि लोकपाल कर सकता है। राज्यसभा में जो नाटक हुआ उसका शायद यही कारण हो सकता है। सत्तारूढ़ कांग्रेस, भाजपा और दूसरे दलों को जानना चाहिए कि वे हमेशा जनता को मूर्ख नहीं बना सकते!
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