Wednesday, 18 July 2012

Biography Of Rajesh Khanna


18/07/2012- याद कीजिए आनंद का वह संवाद, मौत, तू एक कविता है.। ..और अंतिम वाक्य- आनंद मरा नहीं., आनंद मरा नहीं करते..। आज आनंद चला गया। हमेशा के लिए। पर याद रहेगा हमेशा-हमेशा के लिए।
राजेश खन्ना
असली नाम : जतिन खन्ना
जन्म स्थान : अमृतसर
पहली फिल्म : आखिरी खत (1966)
पहली हिट : आराधना (1969)
फिल्मफेयर : 1970 में पहला (सच्चा झूठा), कुल तीन, चौदह बार नॉमिनेट
सफलतम वर्ष : 1971 (कटी पतंग, आनंद, आन मिलो सजना, महबूब की मेंहदी, हाथी मेरे साथी और अंदाज)
स्टेटस : भारतीय सिनेमा के पहले सुपरस्टार
लोकप्रिय नाम : काका
हिट जोड़ी : शर्मिला टैगोर, मुमताज के साथ
गाने : किशोर कुमार ने दी आवाज
संगीत : आरडी बर्मन ने दिया संगीत
सबसे हिट गाना : मेरे सपनों की रानी..(आराधना)
शादी : डिंपल कपाडिय़ा से 1973 में
संतान : दो बेटिया (ट्विंकल, रिंकी)
अफेयर : अंजू महेंद्रू, टीना मुनीम से
शौक : महंगी कारें, मुजरा
राजनीति : 1991-96 काग्रेस से लोकसभा सासद
सिर चढ़ कर बोला जादू
बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना का जादू 70-80 में सिनेप्रेमियों के सिर चढ़ कर बोला। खास तौर पर लड़किया उनकी जबर्दस्त प्रशसक रहीं। काका के नाम से मशहूर राजेश ने दो दशक तक भारतीय सिनेमा पर राज किया। एक के बाद एक कई सुपरहिट फिल्में उनके खाते में दर्ज हुईं और उनकी लोकप्रियता ने नया आयाम बनाया। राजेश का अपना अलग ही अंदाज रहा। उन्होंने अपनी बेमिसाल और सरल अदाकारी के बूते उस समय के दिग्गज कलाकारों को बहुत पीछे छोड़ दिया। बाद में अमिताभ बच्चन भारतीय सिनेमा के दूसरे सुपरस्टार हुए और काका के उत्ताराधिकारी बने।
जतिन से राजेश तक
जिसे दुनिया राजेश खन्ना के नाम से जानती है, उनका असली नाथ था जतिन खन्ना। 29 दिसंबर, 1942 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे जतिन को बचपन से ही अभिनय में दिलचस्पी थी। हालाकि उनके परिवार को यह बात रास नहीं आती थी। लेकिन उन्होंने अपने दिल की सुनी। परिवार की मर्जी के खिलाफ अभिनय को अपना करियर बनाने की ठान ली। 1960 में मुंबई चले आए और संघर्ष शुरू कर दिया। 1965 में मुंबई में युनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर ने एक टैलेंट हंट आयोजित किया था। जतिन ने इसमें भाग लिया और फाइनल में दस हजार में से चुने गए। इसके बाद उन्हें रोल मिलने लगे। 1966 में 24 बरस की उम्र में उन्हें आखिरकार अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल ही गया। फिल्म का नाम था आखिरी खत। इस फिल्म के बाद उन्हें कुछ फिल्मों में और काम मिला। इनमें बहारों के सपने और औरत शामिल थीं। फिल्में मिलने लगी थीं, काम लोगों का पसंद आने लगा था, लेकिन कोई भी फिल्म सफलता दर्ज करने में कामयाब नहीं हो रही थी। हा इतना जरूर था कि कल का जतिन जतन कर एक्टर राजेश खन्ना बन गया था।
रंग लाई आराधना
अभिनय के प्रति राजेश की अटूट आराधना रंग लाई। 1969 में आई उनकी फिल्म आराधना ने जबर्दस्त सफलता दर्ज की। राजेश खन्ना अब भारतीय सिनेमा के उभरते स्टार बन गए। उनकी भोली सूरत, बोलकी आखें, दिलकश अंदाज और डायलॉग डिलेवरी का अपना एक अलग अंदाज, लोगों को बहुत पसंद आया। वह युवा दिलों की धड़कन बन गए। लड़किया मानो उन पर मर मिटने को तैयार थीं। देवानंद के बाद लड़कियों में यदि किसी का इतना जबर्दस्त क्त्रेज था तो वो थे राजेश खन्ना। आराधना में शर्मिला टैगोर के साथ उनकी जोड़ी हिट हुई।
रिकॉर्ड तोड़ सफलता
आराधना ने राजेश की कामयाबी को मानो पंख दे दिए थे। इस फिल्म के बाद अगले चार साल में उन्होंने खुद को सुपर स्टार के रूप में स्थापित कर लिया था। इन चार साल में उनकी लगातार 15 हिट फिल्में आईं। भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी ताबड़तोड़ सफलता इससे पहले किसी अभिनेता को नसीब नहीं हुई थी। राजेश जिस सहजता और संवेदनशीलता के साथ भावपूर्ण दृश्यों में अभिनय करते थे, वो उन्हें बेमिसाल अभिनेता साबित करती थी। आनंद फिल्म में किया गया उनका अभिनय उन्हें सदा के लिए अमर बना गया।
71 में 6 सुपरहिट
राजेश खन्ना को 1970 में सच्चा-झूठा के लिए पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। 1971 एक ऐसा साल रहा, जो भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुआ। राजेश खन्ना ने एक के बाद एक छह सुपरहिट फिल्में दीं। कटी पतंग, आनंद, आन मिलो सजना, महबूब की मेंहदी, हाथी मेरे साथी और अंदाज। इसके बाद भी हिट फिल्मों का दौर जारी रहा। इनमें दो रास्ते, दुश्मन, बावर्ची, मेरे जीवन साथी, जोरू का गुलाम, अनुराग, दाग, नमक हराम और हमशक्ल जैसी फिल्में शामिल थीं। राजेश को आनंद में यादगार अभिनय के लिए 1971 में लगातार दूसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया। तीन साल बाद उन्हें आविष्कार फिल्म के लिए भी यह पुरस्कार प्रदान किया गया। 2005 में फिल्मफेयर ने उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया।
शर्मिला और मुमताज से साथ हिट रही जोड़ी
राजेश की जोड़ी शर्मिला टैगोर और मुमताज के साथ सुपरहिट रही। उन्होंने शर्मिला के साथ आराधना, सफर, बदनाम फरिश्ते, छोटी बहू, अमर प्रेम, राजा-रानी और आविष्कार में काम किया। यह सभी फिल्में हिट रहीं। वहीं मुमताज के साथ उन्होंने दो रास्ते, बंधन, सच्चा-झूठा, दुश्मन, अपना देश, आपकी कसम, रोटी तथा प्रेम कहानी में जोड़ी बनाई, जो कामयाब रही।
किशोर ने दी आवाज
राजेश की फिल्मों की सफलता में फिल्म के संगीत ने भी बड़ी भूमिका निभाई। संगीतकार आरडी बर्मन ने उनकी अधिकाश फिल्मों को संगीत दिया। वहीं उन्हें आवाज दी किशोर कुमार ने। राजेश की लगभग सभी फिल्मों में गाने किशोर ने ही गाए। इनमें एक से बढ़कर एक सदाबहार गाने शामिल हैं। बाद में राजेश के उत्ताराधिकारी बने अमिताभ के गाने भी किशोर ने ही गाए।
खेली दूसरी पारी
80 के दशक के अंत-अंत में राजेश की पहली पारी का अंत हुआ। जंजीर और शोले जैसी एक्शन फिल्मों की सफलता और अमिताभ बच्चन के उदय ने राजेश खन्ना की लहर को थाम लिया। लोग एक्शन फिल्में पसंद करने लगे और 1975 के बाद राजेश की कई रोमाटिक फिल्में असफल रही। राजेश ने उस समय कई महत्वपूर्ण फिल्में ठुकरा दी, जो बाद में अमिताभ को मिली। यही फिल्में अमिताभ के सुपरस्टार बनने की सीढिय़ा साबित हुईं। यही राजेश के पतन का कारण बना। 1994 में उन्होंने अपनी दूसरी पारी शुरू की। 94 में खुदाई, 99 में आ अब लौट चलें, 2002 में क्या दिल ने कहा और अंत में वफा सिनेमाघरों में आई। पिछले दिनों उनका एक टीवी विज्ञापन भी आया। पंखों (फैन) के इस विज्ञापन में वे कहते हैं, मेरे फैन कभी कम नहीं हो सकते..।
राजनीति में भी कूदे
राजेश ने राजनीति में हाथ आजमाया और 1991 से 1996 में दिल्ली से काग्रेस के लोकसभा सासद रहे। राजीव गाधी के कहने पर राजेश ने काग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते। एक चुनाव हारे भी। लालकृष्ण आडवाणी से हारे और शत्रुघ्न सिन्हा को हराया। बाद में उन्होंने राजनीति से खुद को दूर कर लिया।

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Wednesday, 27 June 2012


"संसद में शर्मनाक तमाशा" 

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Photo: "संसद में शर्मनाक तमाशा" 

लोकपाल बिल एक बार फिर राज्यसभा में लटकने के लिए कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी दोषी !


दक्षिण एशियाई देशों में भ्रष्टाचार अब खबर नहीं रही। लोग इसके साथ जीने लगे हैं। फिर भी, ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार को लेकर उनके मन में गुस्सा नहीं है, लेकिन जब वे इस भ्रष्टाचार के साथ बड़े-बड़े नेताओं का जुड़ाव देखते हैं तो उन्हें लगने लगता है कि संभवत: इसे दूर करने का कोई रास्ता नहीं है। भारत में भ्रष्टाचार को लेकर उत्तेजना है, क्योंकि भ्रष्टाचार का एक के बाद दूसरा मामला उजागर हो रहा है। ऐसे में पिछले सप्ताह जब बहुचर्चित लोकपाल विधेयक एक बार फिर टल गया तो काफी निराशा हुई। पिछले 42 सालों से इस विधेयक का यही हश्र होता आ रहा है। सभी सरकारें, जिनमें अधिकांश कांग्रेस की सरकार हैं, किसी न किसी बहाने इस जुगत में लगी रही हैं कि यह विधेयक पारित न हो सके। यहां तक कि जब विधेयक लोकसभा में पारित हो गया और संसद की स्थायी समिति में इस पर विचार भी हो गया तब भी पिछले दिसंबर में सरकार राज्यसभा में इसकी अनदेखी कर गई। उसने बहाना बनाया कि चूंकि कार्यवाही चलते मध्यरात्रि हो चुकी है इसलिए सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया जाता है। इस तरह इस बार भी वही नाटक हुआ। बस पटकथा में कुछ और अंश जोड़ दिए गए। पिछले दिनों लोकपाल विधेयक मंजूरी के लिए फिर राज्यसभा में पेश किया गया। विधेयक में पहले प्रावधान था कि राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति केंद्र सरकार करेगी। राज्य सरकारों ने इसका विरोध किया था। राज्य सरकारों का कहना था कि अपने शासनाधिकार वाले क्षेत्रों के भ्रष्टाचार को वे खुद देखेंगे। राज्यों के विरोध के कारण किरकिरी हुई। इसके कारण इस प्रावधान को हटाकर इस बार नए स्वरूप में विधेयक पेश किया गया था। हालांकि पेंच वाले दो अन्य प्रावधान बने रहे। इनमें पहला प्रावधान सीबीआइ का नियंत्रण केंद्र के अधीन रहने और दूसरा लोकपाल के चयन के लिए चयन समिति बनाने का था। फिलहाल इस समिति में सरकारी प्रतिनिधि बहुमत में हैं। कांग्रेस जब देश से बार-बार वादा कर रही थी कि इस बार के संसद सत्र में वह एक सशक्त लोकपाल विधेयक को पारित करा लेगी तो उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस कोई मान्य समाधान तलाश लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मंगलवार को सत्रावसान हो गया। लोकपाल के घिनौने नाटक का पहला दृश्य मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ओर से पेश किया गया। सपा के एक सदस्य ने विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद की प्रवर समिति में भेजने का सुझाव दिया। यह चौंकाने वाली घटना थी। ऐसा लगता है यह प्रस्ताव कांग्रेस के इशारे पर रखा गया, जो नहीं चाहती कि विधेयक पारित हो, लेकिन ऊपर से दिखाना चाहती है कि वह विधेयक के पक्ष में है। कांग्रेस दिखावे के तौर पर ऐसा करने को मजबूर है, क्योंकि लोकपाल सरकार के लिए अग्निपरीक्षा बन चुका है। जनता इसी के आधार पर राय बनाने के मूड में है कि सरकार भ्रष्टाचार पर रोक लगाना चाहती है या नहीं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सदन में मौजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से सीधा सवाल किया कि सरकार विधेयक को पारित कराना चाहती है या नहीं? मनमोहन सिंह शांत बैठे रहे। सरकार ने जब खुद प्रवर समिति के गठन का प्रस्ताव पेश किया तो सारा रहस्य खुल गया और यहां से साजिश भरे नाटक का दूसरा दृश्य शुरू हुआ। सरकार का प्रस्ताव जब वोट के लिए रखा गया तो इसके विरोध में कोई नहीं आया। अरुण जेटली उस वक्त तक सरकार का घोर विरोध कर रहे थे, लेकिन जब प्रवर समिति बनाने का प्रस्ताव सरकार की ओर से रखा गया तो वह भी सरकार के साथ हो गए। मुलायम सिंह यादव द्वारा कांग्रेस को बचाने की बात मैं समझ सकता हूं, क्योंकि उनके खिलाफ सीबीआइ में कई मामले पड़े हुए हैं, लेकिन चौंकाने वाली बात भाजपा का उलट रवैया था। भाजपा ने कांग्रेस सरकार द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव का विरोध क्यों नहीं किया, यह बात मेरी समझ से परे है। मैंने किसी मुख्य विपक्षी पार्टी को करोड़ों लोगों के सामने इस तरह यू टर्न लेते कभी नहीं देखा था। ये करोड़ों लोग लोकपाल का भविष्य जानने के लिए टेलीविजन सेटों पर आंखें टिकाए हुए थे। एक सफाई पेश की गई कि जिस वक्त प्रस्ताव पर मतदान होना था उस वक्त पर्याप्त संख्या में भाजपा सदस्य सदन में उपस्थित नहीं थे, लेकिन सवाल यह नहीं था कि भाजपा प्रस्ताव को पारित होने से रोक पाती है या नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण बात यह थी कि लोकपाल विधेयक के समर्थन को लेकर भाजपा पूरे तौर पर ईमानदार है या नहीं? परीक्षा की घड़ी आई तो भाजपा गुफा में घुस गई। अब इसका कोई मतलब नहीं रहा कि उसने कब और कहां कितना हल्ला मचाया? हकीकत में भाजपा पूरे तरह बेपर्दा हो गई है। अब फैसला जनता को करना है। वाम दलों को छोड़कर बाकी दल लोकपाल नहीं चाहते। उन्हें इस बात का डर है कि लोकपाल होने पर उनके नेताओं की करतूतें बेपर्दा होंगी या फिर उन्हें सजा मिलेगी? मुझे लगता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन सरकार के दिए भरोसे को लेकर स्थगित नहीं होना चाहिए था। उस वक्त तो सरकार ने हजारे को सदन की इस भावना से अवगत कराया था कि पूरा सदन मजबूत लोकपाल के समर्थन में है। कोई संदेह नहीं कि घोषणा के अनुसार अगर आंदोलन फिर 25 जुलाई से शुरू होता है तो वह जोर पकड़ेगा। हजारे की मुख्य ताकत जनअसंतोष है और वह जन असंतोष खत्म नहीं हुआ है। चिंता बस इस बात को लेकर है कि हजारे के इर्द-गिर्द बहुत सारे अवांछित तत्व जमा हो गए है और इनके कारण फिर से ईमानदार, पंथनिरपेक्ष मोर्चा खड़ा करना कठिन होगा। इस बार काले धन पर सरकार का श्वेत-पत्र मददगार साबित हो सकता है। इसमें विदेशों में जमा काले धन के बारे में कोई अनुमान नहीं दिया गया है। फिर भी सरकार ने इस काले धन को प्राप्त करने के लिए एक बार करों में छूट देने की घोषणा की है। इस तरह की कोशिश पहले भी की गई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला था। रियल इस्टेट और शेयर बाजार काले धन के सबसे बड़े श्चोत हैं। कई राज्यों में तो मंत्री ही खुद इनसे जुड़े हुए हैं। राजनीतिक कारणों से सरकार इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, जबकि लोकपाल कर सकता है। राज्यसभा में जो नाटक हुआ उसका शायद यही कारण हो सकता है। सत्तारूढ़ कांग्रेस, भाजपा और दूसरे दलों को जानना चाहिए कि वे हमेशा जनता को मूर्ख नहीं बना सकते। 
लोकपाल बिल एक बार फिर राज्यसभा में लटकने के लिए कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी दोषी !


दक्षिण एशियाई देशों में भ्रष्टाचार अब खबर नहीं रही। लोग इसके साथ जीने लगे हैं। फिर भी, ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार को लेकर उनके मन में गुस्सा नहीं है, लेकिन जब वे इस भ्रष्टाचार के साथ बड़े-बड़े नेताओं का जुड़ाव देखते हैं तो उन्हें लगने लगता है कि संभवत: इसे दूर करने का कोई रास्ता नहीं है। भारत में भ्रष्टाचार को लेकर उत्तेजना है, क्योंकि भ्रष्टाचार का एक के बाद दूसरा मामला उजागर हो रहा है। ऐसे में पिछले सप्ताह जब बहुचर्चित लोकपाल विधेयक एक बार फिर टल गया तो काफी निराशा हुई। पिछले 42 सालों से इस विधेयक का यही हश्र होता आ रहा है। सभी सरकारें, जिनमें अधिकांश कांग्रेस की सरकार हैं, किसी न किसी बहाने इस जुगत में लगी रही हैं कि यह विधेयक पारित न हो सके। यहां तक कि जब विधेयक लोकसभा में पारित हो गया और संसद की स्थायी समिति में इस पर विचार भी हो गया तब भी पिछले दिसंबर में सरकार राज्यसभा में इसकी अनदेखी कर गई। उसने बहाना बनाया कि चूंकि कार्यवाही चलते मध्यरात्रि हो चुकी है इसलिए सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया जाता है। इस तरह इस बार भी वही नाटक हुआ। बस पटकथा में कुछ और अंश जोड़ दिए गए। पिछले दिनों लोकपाल विधेयक मंजूरी के लिए फिर राज्यसभा में पेश किया गया। विधेयक में पहले प्रावधान था कि राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति केंद्र सरकार करेगी। राज्य सरकारों ने इसका विरोध किया था। राज्य सरकारों का कहना था कि अपने शासनाधिकार वाले क्षेत्रों के भ्रष्टाचार को वे खुद देखेंगे। राज्यों के विरोध के कारण किरकिरी हुई। इसके कारण इस प्रावधान को हटाकर इस बार नए स्वरूप में विधेयक पेश किया गया था। हालांकि पेंच वाले दो अन्य प्रावधान बने रहे। इनमें पहला प्रावधान सीबीआइ का नियंत्रण केंद्र के अधीन रहने और दूसरा लोकपाल के चयन के लिए चयन समिति बनाने का था। फिलहाल इस समिति में सरकारी प्रतिनिधि बहुमत में हैं। कांग्रेस जब देश से बार-बार वादा कर रही थी कि इस बार के संसद सत्र में वह एक सशक्त लोकपाल विधेयक को पारित करा लेगी तो उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस कोई मान्य समाधान तलाश लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मंगलवार को सत्रावसान हो गया। लोकपाल के घिनौने नाटक का पहला दृश्य मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ओर से पेश किया गया। सपा के एक सदस्य ने विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद की प्रवर समिति में भेजने का सुझाव दिया। यह चौंकाने वाली घटना थी। ऐसा लगता है यह प्रस्ताव कांग्रेस के इशारे पर रखा गया, जो नहीं चाहती कि विधेयक पारित हो, लेकिन ऊपर से दिखाना चाहती है कि वह विधेयक के पक्ष में है। कांग्रेस दिखावे के तौर पर ऐसा करने को मजबूर है, क्योंकि लोकपाल सरकार के लिए अग्निपरीक्षा बन चुका है। जनता इसी के आधार पर राय बनाने के मूड में है कि सरकार भ्रष्टाचार पर रोक लगाना चाहती है या नहीं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सदन में मौजूद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से सीधा सवाल किया कि सरकार विधेयक को पारित कराना चाहती है या नहीं? मनमोहन सिंह शांत बैठे रहे। सरकार ने जब खुद प्रवर समिति के गठन का प्रस्ताव पेश किया तो सारा रहस्य खुल गया और यहां से साजिश भरे नाटक का दूसरा दृश्य शुरू हुआ। सरकार का प्रस्ताव जब वोट के लिए रखा गया तो इसके विरोध में कोई नहीं आया। अरुण जेटली उस वक्त तक सरकार का घोर विरोध कर रहे थे, लेकिन जब प्रवर समिति बनाने का प्रस्ताव सरकार की ओर से रखा गया तो वह भी सरकार के साथ हो गए। मुलायम सिंह यादव द्वारा कांग्रेस को बचाने की बात मैं समझ सकता हूं, क्योंकि उनके खिलाफ सीबीआइ में कई मामले पड़े हुए हैं, लेकिन चौंकाने वाली बात भाजपा का उलट रवैया था। भाजपा ने कांग्रेस सरकार द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव का विरोध क्यों नहीं किया, यह बात मेरी समझ से परे है। मैंने किसी मुख्य विपक्षी पार्टी को करोड़ों लोगों के सामने इस तरह यू टर्न लेते कभी नहीं देखा था। ये करोड़ों लोग लोकपाल का भविष्य जानने के लिए टेलीविजन सेटों पर आंखें टिकाए हुए थे। एक सफाई पेश की गई कि जिस वक्त प्रस्ताव पर मतदान होना था उस वक्त पर्याप्त संख्या में भाजपा सदस्य सदन में उपस्थित नहीं थे, लेकिन सवाल यह नहीं था कि भाजपा प्रस्ताव को पारित होने से रोक पाती है या नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण बात यह थी कि लोकपाल विधेयक के समर्थन को लेकर भाजपा पूरे तौर पर ईमानदार है या नहीं? परीक्षा की घड़ी आई तो भाजपा गुफा में घुस गई। अब इसका कोई मतलब नहीं रहा कि उसने कब और कहां कितना हल्ला मचाया? हकीकत में भाजपा पूरे तरह बेपर्दा हो गई है। अब फैसला जनता को करना है। वाम दलों को छोड़कर बाकी दल लोकपाल नहीं चाहते। उन्हें इस बात का डर है कि लोकपाल होने पर उनके नेताओं की करतूतें बेपर्दा होंगी या फिर उन्हें सजा मिलेगी? मुझे लगता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन सरकार के दिए भरोसे को लेकर स्थगित नहीं होना चाहिए था। उस वक्त तो सरकार ने हजारे को सदन की इस भावना से अवगत कराया था कि पूरा सदन मजबूत लोकपाल के समर्थन में है। कोई संदेह नहीं कि घोषणा के अनुसार अगर आंदोलन फिर 25 जुलाई से शुरू होता है तो वह जोर पकड़ेगा। हजारे की मुख्य ताकत जनअसंतोष है और वह जन असंतोष खत्म नहीं हुआ है। चिंता बस इस बात को लेकर है कि हजारे के इर्द-गिर्द बहुत सारे अवांछित तत्व जमा हो गए है और इनके कारण फिर से ईमानदार, पंथनिरपेक्ष मोर्चा खड़ा करना कठिन होगा। इस बार काले धन पर सरकार का श्वेत-पत्र मददगार साबित हो सकता है। इसमें विदेशों में जमा काले धन के बारे में कोई अनुमान नहीं दिया गया है। फिर भी सरकार ने इस काले धन को प्राप्त करने के लिए एक बार करों में छूट देने की घोषणा की है। इस तरह की कोशिश पहले भी की गई थी, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला था। रियल इस्टेट और शेयर बाजार काले धन के सबसे बड़े श्चोत हैं। कई राज्यों में तो मंत्री ही खुद इनसे जुड़े हुए हैं। राजनीतिक कारणों से सरकार इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, जबकि लोकपाल कर सकता है। राज्यसभा में जो नाटक हुआ उसका शायद यही कारण हो सकता है। सत्तारूढ़ कांग्रेस, भाजपा और दूसरे दलों को जानना चाहिए कि वे हमेशा जनता को मूर्ख नहीं बना सकते!

Wednesday, 30 May 2012


Indian Prime Minister Mr. Manmohan Singh Ask to Citizen " If any one accused proved True then I 

will Get Back From Politics" He also said "What is My Offence"?

Please Give Your Answer To Mr. Manmohan Singh.

 
My View- It may be true, you are innocence but in your Goverment & During your Working Period, which happen in India?

Yet Singh jee, You not lost your faith today, Indian citizen knows you are the Best but we are in doubt, why you not controlled your Goverment?

Thursday, 8 March 2012

Sitam

Wafa ab kaha, Ab mohabbat kaha hai,

Sitamgar jamana, Sitamgar jaha hai,

Sitam inki khwahis, Sitam inke arma,

Sitam inki chahat, Sitam aasma hai,

Sitam inki aadat, Sitam Muskurana,

Sitam se hi inki ye hasti jawaa hai,

Sitam inki baate, Sitam hai jawani,

Sitam inki rag-rag, Sitam dasta hai,

Wafa ab kaha, Ab mohabbat kaha hai,

Sitamgar jamana, Sitamgar jaha hai.

                                  Created by Kundan A. Jha

Saturday, 4 February 2012

Socho, Aaj humare pass agriculture ke liye Machinery hai, but machinery ka use hone se "OX" ko kaun rakhega aur agar rakhega nahi toh inhe Khana kaun dega, Agar khana nahi milega toh kya yeh rah paenge. Save OX, Save Our Sanskriti. 

BHARATH KRISHI PRADHAN DESH HAI, Jaha 'OX' ko Shiva aur 'Cow' ko Laxmi kehte hai.




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