भारतीय संस्कृति को पुन: परिभाषित करने की अनैतिक कोशिश।
सबकी अपनी अपनी दृष्टी हो सकती है इतिहास की व्याख्या के लिए। बिहार विधानसभा चुनाव में वोटो की ध्रुवीकरण के लिए कई तरह के बयान दिए जा रहें है। वैसे यह मुद्दा बिहार का ही नही वरण पुरे भारत का है। इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पुर्व प्रोफेसर डीएन झा के अनुसार वैदिक पुर्वज गौमांस खाते थे। उन्होंने अपनी बातों की प्रामाणिकता के लिए ऋगवेद का उल्लेख किया है। याद रहे इतिहास मतलब बीते हुए कल के क्रियाकलापों की चर्चा आज और आज का क्रियाकलाप भी आनेवाले कल का इतिहास बनेगा। शोभा डे चिल्ला रही है कि मैं गौ-भक्षी हुं, ऐसे ही कई और नामधारी हिंदु है। अब १००-१५० वर्ष बाद कोई विद्वान "शोभा डे और झा" का उल्लेख करेंगे अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए और गौमांस खाने को भारतीय परंपरा का हिस्सा बताएंगे।
हृदयनारायण दीक्षित आज के सहार की चिंतन कॉलम में लिखते है "डीएन झा ऋग्वेद के मर्म, अंतस् और छंदस् से अपरिचित है"। अंग्रेजी में सोचने और संस्कृति विरोधी तर्क देने से ही इतिहास की समझ प्रमाणिक नही होती है। गाय का आदर, संरक्षण और सम्मान वैदिक परंपरा की केंद्रीय धारा है। यही धारा आधुनिक राष्ट्रजीवन तक प्रवाहमान है।
गाय वैदिक समाज में आदरणीय है। ऋग्वेद के ऋषि काव्य सृजन में बार-बार गाय का उल्लेख करते है। कहते है - गाएं भाग्य है - गावो भगो। इसलिए हे इंद्र हमें गाय दीजिए। ऋषि मधुप्रिय हैं, वे वायु, मधु अभीप्सु है। गायत्री मंत्र के द्रष्टा रचियता विश्वामित्र कहते हैं- उंद्र ने गायों से मधु दुग्ध पाया। गाएं लोकमंगल का अधिष्ठान हैं। गायों की विशेषता है कि वे घर आती हैं, कल्याण हो जाता है। वे दूध के द्वारा हमारी इच्छाएं पूरी करती हैं। ऋग्वेद में निर्देश है गाय सुरक्षा के लिए व्रज-गौशाला बनानी चाहिए। ऋृग्वेद के १०वें मंडल के सूक्त १९ के देवता गौ हैं। डीएन झा जैसे इतिहासकार १०वें मंडल को बाकी ऋग्वेद की तुलना में बाद की रचना मानते है। छठा मंडल अतिप्राचीन है। उसमें कहते है कि ये गांए ही इंद्र है- 'इमा या गाव: स जनास इंद्र'। हे गौओ !आप हम सबको शक्ति संपन्न बनाएं। अपनी बोली से घक पवित्र करें। हिंसक आपको कष्ट न दें। वैदिक ऋषियों को 'सहस्त्रधार' शब्द बड़ा प्रिय है। गाय भी सहस्त्रधाराओं में दूध देती है।
अथर्ववेद में भी गाय की महत्ता के गीत हैं। अथर्ववेद की घोषणा है- जहां गौएं परेशान होती हैं उस राष्ट्र का तेज शून्य हो जाता है, वहां वीर जन्म नही लेते। गाय को पीड़ा देना क्रुरता-क्रुरमस्या है। ऋग्वेदल की तरह ही अथर्ववेद में गौ सूक्त (९.१२) है। यहां गाय में विराट देवतंत्र है। मस्तक इंद्र हैं। सोम मस्तिष्क हैं। ऊपर का जबड़ा अंतरिक्ष है, नीचे का भूलोक है। विश्ववायु इसका प्राण है। धारक शक्ति सविता हैं, अदिति खुर हैं। वे पूर्वाभिमुख इंद्र है। दक्षिणाभिमुख यम है। अंत में कहते हैं, एतद् वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपं- यही विश्वरूप स, सर्वरूप गौ रूप है। यहां दर्शन का परम चरम है।
असली बात है भारतीय जीवन दृष्टी। एक देखना सिर्फ देखना है। दुसरा देखना 'आलोचना' है। लेकिन संपुर्णता में देखना 'दर्शन' है। श्रीमान झा की दृष्टी "आहतकारी है। गाय देखने में प्राणी है, पशु है। उसकी उपयोगिता है। दर्शन में देवता है। धर्म क्षेत्रे माता है। ऋग्वेद (६.२८) और अथर्ववेद (४.२१) में संकलित सूक्त में देव से प्रार्थना है कि वे इन्हें पुष्ट करें। रूद्र देव उन्हे स्वास्थ्य दें, संवर्द्धित करें। अथर्ववेद (४.२१.७) के ऋषि गौओं से प्रार्थना करते है, आपकी संतति बढ़े। अाप स्वच्छ चारा खाएं। शुद्ध जल पियें। तब गाय का बोलना भी घर को भद्र बनाता था। उन्हे शुद्ध जल पीने का निमंत्रण दिया जाता था। लेकिन आज इसी देश के कुछेक विद्वान गौमांस भक्षण को उचित ठहरा रहें है। गायों और गोप्रेमियों की आंखे सजल शोक संतृप्ति हैं। गाय समुचे वैदिक काल में अघन्या है, अबध्य है। गोवंश ही कृषी अर्थव्यवस्था की धुरी है (थी)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (पृष्ट २६९ गैरोला का अनुवाद) में गाय को मारने के लिए मृत्युदंड के निर्देश हैं। संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में गाय और गौवंश की महत्ता है। श्री कृष्ण गोपाल थे। बौद्ध पंथ में गाय रो माता और पिता की तरह सम्मान दिया गया है। भारत के संविधान में राज्य के नीति निर्देश तत्वों (अनुच्छेद ४८) में भी गौ संरक्षण है। मनमानी व्याख्या उचित नहीं होती। आहातकारी व्याख्या तो कतई उचित नही।
श्री डीएन झा को याद दिला दें कि उनके अपने मिथिला संस्कृति और रीति के वैदिक कार्यो में गाय अनिवार्य है। श्री झा बताएं गोदान क्या है? श्राद्ध कर्म में गाय की क्युं और क्या महत्ता है?
कुंदन आनंद झा
सबकी अपनी अपनी दृष्टी हो सकती है इतिहास की व्याख्या के लिए। बिहार विधानसभा चुनाव में वोटो की ध्रुवीकरण के लिए कई तरह के बयान दिए जा रहें है। वैसे यह मुद्दा बिहार का ही नही वरण पुरे भारत का है। इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पुर्व प्रोफेसर डीएन झा के अनुसार वैदिक पुर्वज गौमांस खाते थे। उन्होंने अपनी बातों की प्रामाणिकता के लिए ऋगवेद का उल्लेख किया है। याद रहे इतिहास मतलब बीते हुए कल के क्रियाकलापों की चर्चा आज और आज का क्रियाकलाप भी आनेवाले कल का इतिहास बनेगा। शोभा डे चिल्ला रही है कि मैं गौ-भक्षी हुं, ऐसे ही कई और नामधारी हिंदु है। अब १००-१५० वर्ष बाद कोई विद्वान "शोभा डे और झा" का उल्लेख करेंगे अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए और गौमांस खाने को भारतीय परंपरा का हिस्सा बताएंगे।
हृदयनारायण दीक्षित आज के सहार की चिंतन कॉलम में लिखते है "डीएन झा ऋग्वेद के मर्म, अंतस् और छंदस् से अपरिचित है"। अंग्रेजी में सोचने और संस्कृति विरोधी तर्क देने से ही इतिहास की समझ प्रमाणिक नही होती है। गाय का आदर, संरक्षण और सम्मान वैदिक परंपरा की केंद्रीय धारा है। यही धारा आधुनिक राष्ट्रजीवन तक प्रवाहमान है।
गाय वैदिक समाज में आदरणीय है। ऋग्वेद के ऋषि काव्य सृजन में बार-बार गाय का उल्लेख करते है। कहते है - गाएं भाग्य है - गावो भगो। इसलिए हे इंद्र हमें गाय दीजिए। ऋषि मधुप्रिय हैं, वे वायु, मधु अभीप्सु है। गायत्री मंत्र के द्रष्टा रचियता विश्वामित्र कहते हैं- उंद्र ने गायों से मधु दुग्ध पाया। गाएं लोकमंगल का अधिष्ठान हैं। गायों की विशेषता है कि वे घर आती हैं, कल्याण हो जाता है। वे दूध के द्वारा हमारी इच्छाएं पूरी करती हैं। ऋग्वेद में निर्देश है गाय सुरक्षा के लिए व्रज-गौशाला बनानी चाहिए। ऋृग्वेद के १०वें मंडल के सूक्त १९ के देवता गौ हैं। डीएन झा जैसे इतिहासकार १०वें मंडल को बाकी ऋग्वेद की तुलना में बाद की रचना मानते है। छठा मंडल अतिप्राचीन है। उसमें कहते है कि ये गांए ही इंद्र है- 'इमा या गाव: स जनास इंद्र'। हे गौओ !आप हम सबको शक्ति संपन्न बनाएं। अपनी बोली से घक पवित्र करें। हिंसक आपको कष्ट न दें। वैदिक ऋषियों को 'सहस्त्रधार' शब्द बड़ा प्रिय है। गाय भी सहस्त्रधाराओं में दूध देती है।
अथर्ववेद में भी गाय की महत्ता के गीत हैं। अथर्ववेद की घोषणा है- जहां गौएं परेशान होती हैं उस राष्ट्र का तेज शून्य हो जाता है, वहां वीर जन्म नही लेते। गाय को पीड़ा देना क्रुरता-क्रुरमस्या है। ऋग्वेदल की तरह ही अथर्ववेद में गौ सूक्त (९.१२) है। यहां गाय में विराट देवतंत्र है। मस्तक इंद्र हैं। सोम मस्तिष्क हैं। ऊपर का जबड़ा अंतरिक्ष है, नीचे का भूलोक है। विश्ववायु इसका प्राण है। धारक शक्ति सविता हैं, अदिति खुर हैं। वे पूर्वाभिमुख इंद्र है। दक्षिणाभिमुख यम है। अंत में कहते हैं, एतद् वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपं- यही विश्वरूप स, सर्वरूप गौ रूप है। यहां दर्शन का परम चरम है।
असली बात है भारतीय जीवन दृष्टी। एक देखना सिर्फ देखना है। दुसरा देखना 'आलोचना' है। लेकिन संपुर्णता में देखना 'दर्शन' है। श्रीमान झा की दृष्टी "आहतकारी है। गाय देखने में प्राणी है, पशु है। उसकी उपयोगिता है। दर्शन में देवता है। धर्म क्षेत्रे माता है। ऋग्वेद (६.२८) और अथर्ववेद (४.२१) में संकलित सूक्त में देव से प्रार्थना है कि वे इन्हें पुष्ट करें। रूद्र देव उन्हे स्वास्थ्य दें, संवर्द्धित करें। अथर्ववेद (४.२१.७) के ऋषि गौओं से प्रार्थना करते है, आपकी संतति बढ़े। अाप स्वच्छ चारा खाएं। शुद्ध जल पियें। तब गाय का बोलना भी घर को भद्र बनाता था। उन्हे शुद्ध जल पीने का निमंत्रण दिया जाता था। लेकिन आज इसी देश के कुछेक विद्वान गौमांस भक्षण को उचित ठहरा रहें है। गायों और गोप्रेमियों की आंखे सजल शोक संतृप्ति हैं। गाय समुचे वैदिक काल में अघन्या है, अबध्य है। गोवंश ही कृषी अर्थव्यवस्था की धुरी है (थी)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (पृष्ट २६९ गैरोला का अनुवाद) में गाय को मारने के लिए मृत्युदंड के निर्देश हैं। संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में गाय और गौवंश की महत्ता है। श्री कृष्ण गोपाल थे। बौद्ध पंथ में गाय रो माता और पिता की तरह सम्मान दिया गया है। भारत के संविधान में राज्य के नीति निर्देश तत्वों (अनुच्छेद ४८) में भी गौ संरक्षण है। मनमानी व्याख्या उचित नहीं होती। आहातकारी व्याख्या तो कतई उचित नही।
श्री डीएन झा को याद दिला दें कि उनके अपने मिथिला संस्कृति और रीति के वैदिक कार्यो में गाय अनिवार्य है। श्री झा बताएं गोदान क्या है? श्राद्ध कर्म में गाय की क्युं और क्या महत्ता है?